14.9.22

कहां चले... ?

वक्त के दरमियां हम कुछ इस तरह चले

कि अब ज़िन्दगी ही पूछती बता कहां चले

बदल रही हर एक लम्हे-लम्हे मेरी ज़िंदगी

इस किताब-ए-ज़िन्दगी को लेकर कहां चलें

कहां करूं मैं सजदा कहां धुनुं मैं सिर

कोई तो होगा रहनुमा जिसकी यहां चले

कुछ इस तरह करो की लौटना पड़े नहीं

न फर्क है कि साथ गम-ए-तन्हाई चली चले

कहते हैं एक नाटक होती है ज़िन्दगी

हरी'अदा तो कर शायद 'हरी' चले




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