वक्त के दरमियां हम कुछ इस तरह चले
कि अब ज़िन्दगी ही पूछती बता कहां चले
बदल रही हर एक लम्हे-लम्हे मेरी ज़िंदगी
इस किताब-ए-ज़िन्दगी को लेकर कहां चलें
कहां करूं मैं सजदा कहां धुनुं मैं सिर
कोई तो होगा रहनुमा जिसकी यहां चले
कुछ इस तरह करो की लौटना पड़े नहीं
न फर्क है कि साथ गम-ए-तन्हाई चली चले
कहते हैं एक नाटक होती है ज़िन्दगी
हरी'अदा तो कर शायद 'हरी' चले
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Very nice bhai
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