25.12.16

harish.arora.92123
लफ्जों से अपने आज कल नश्तर बनाता हूं
मैं परबतों को काट कर कंकर बनाता हूं
       मायूसियों को छोंक कर सालन के साथ में
       कड़वाहटों को घोल कर शक्कर बनाता हूं
आपनी इंसानियत को जिन्दा रखने के वास्ते
मासूमियत हो के तीखे तेवर बनाता हूं
       जैसे कुम्हार चाक पर बरतन बनाता है
       वैसे ही जिन्दगी के अरमान बनाता हूं
मोती जैसे लफ्जों को चमका के ए 'हरी'
अल्फाज जोड़ जोड़ कर जेवर बनाता हूं ।

 

12.8.16

जिन्दगी चलती हे चलते रहिए
वक्त के साथ बदलते रहिए 
राह मुश्किल सही वो भी निकल जायेगी
ठोकरें खा के भी सम्भलते रहिए
ये अंधेरा हे जो जुगनू से भी घबराता है
सूर्य ना हो तो चरागों सा जलते रहिए
उम्र भर कोई यहाँ साथ नही देता
हो अकेले भी तो हँसते रहिए
कोई खुशबू नही ऐसी है जो ताउम्र रहे
जिन्दगी फूल है थोड़ा महकते रहिए...
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11.8.16

जीवन से कभी अपने नजरे न चुराना
पथरीली राहे आएगी बहुत सफर में तेरे,
पगडंडियों को मगर न भूल जाना ।
हो सकता है न पहुचे कोई किरण
तुम तक उजियारे की
चिरागे दिल को तब भी तुम जलाना ।
हो सकता है न हो समंदर तकदीर में तेरी,
कागज की नाव छोटे पोखर में भी तैराना
कभी जीवन से नजरे न चुराना ।
थक जाओ चाहे पाखी
लत पंखो को, उड़ने को ही लगाना
फड़फड़ाएगी हवा आस-पास भी तुम्हारे
रात भर फिर भी मशाले-इश्क को जलाना ।
बहुत से लोग होंगे, जो तुमसे तेज दौड़ेंगे,
साथ चल रहे साथी का, फिर भी तुम साथ निभाना ।
तिनका-तिनका घोसला, छितरा देगा बवंडर
तुम फिर से समेटना कतरे, फिर से नीड़ बनाना
कभी जीवन से नजरे न चुराना ।
टूटे हुए रिश्तों की भी चटख रखना संजोकर
बिखरे हुए रंगो से, घर की दहलीज सजाना ।
छीन ले मुकद्दर तुम्हारा तुमसे खुशिया तो क्या,
हाथ में अपनी लकीरे तुम खुद ही बनाना ।
हरी भी देगा साथ तुम्हारा राहबर-ए-सफर
खुद तुम, लेकिन अपना भी साथ निभाना
कभी जीवन से नजरे न चुराना ।
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26.5.16

होंसले को आजमाना चाहता हूँ ,
     इक नया जोखिम उठाना चाहता हूँ ।
कामयाबी देखना मिलकर रहेगी ,
     मुश्किलों को बस हराना चाहता हूँ ।
वह गजल लिखकर रहूंगा जिंदगी की ,
     जो लबों पर गुनगुनाना चाहता हूँ ।
अब उदासी को कहीं जाना पडेगा ,
     मैं खुशी से घर सजाना चाहता हूँ ।
मैं बढूंगा जोश लेकर हर कदम ही ,
     रास्तों को मैं थकाना चाहता हूँ ।
साथ मेरा दे न दे कोई भले ही ,
     हमसफ़र खुद को बनाना चाहता हूँ ।
मुश्किलों का सामना हंसकर करूंगा ,
     मंजिलों का सर झुकाना चाहता हूँ ।

14.5.16

 " वक़्त  नहीं " 

हर  ख़ुशी  है  लोंगों  के दामन  में,
पर  एक  हंसी  के  लिये वक़्त  नहीं.

दिन रात  दौड़ती  दुनिया  में, 
ज़िन्दगी  के  लिये ही  वक़्त नहीं.

सारे  रिश्तों को  तो  हम मार चुके,
अब  उन्हें  दफ़नाने  का  भी वक़्त नहीं .. 

सारे  नाम  मोबाइल  में  हैं , 
पर  दोस्ती  के  लिये  वक़्त  नहीं .

गैरों  की  क्या  बात करें , 
जब  अपनों  के  लिये  ही वक़्त नहीं.

आखों  में  है  नींद भरी , 
पर  सोने  का वक़्त  नहीं . 

दिल  है  ग़मो  से  भरा  हुआ , 
पर  रोने का  भी  वक़्त  नहीं . 

पैसों  की दौड़  में  ऐसे  दौड़े, की 
थकने  का  भी वक़्त  नहीं . 

पराये एहसानों  की क्या  कद्र  करें , 
जब अपने  सपनों  के  लिये  ही वक़्त नहीं  

तू  ही  बता  ऐ  ज़िन्दगी , 
इस  ज़िन्दगी  का  क्या होगा, 
की हर  पल  मरने  वालों  को , 
जीने  के  लिये भी  वक़्त  नहीं ....
Harish Vaishnav
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8.5.16

कभी समंदर किनारे नर्म, ठंडी रेत पर बैठे हुए डूबते हुए सूरज को निहारना ....... 
और फ़िर यूँ लगे कि मन भी उसी के साथ हो लिया हो। 
इस दुनिया की उथल-पुथल से दूर, बहुत दूर और पा लेना कुछ सुकून भरे लम्हें ....... 
किसी पहाड़ी की चोटी पर बने मन्दिर की सीढियां पैदल चढ़कर जाना और दर्शनोपरांत उन्हीं सीढ़ियों पर कुछ देर बैठकर वादी की खूबसूरती को आंखों से पी जाना।
बयाँ करते-करते थक जाना मगर चुप होने का नाम न लेना। 
मगर इन सबके बीच जब तन्हाई आकर डस जाए तो कुछ दर्द के साए उमड़ने लगते हैं और ना चाहते हुए भी ख़्वाबों-ख्यालों का ताना-बाना कुछ इस तरह सामने आता है...

ऐ हवा कभी तो मेरे दर से गुजर,
देख कितनी महकी यादें संभाली हैं मैंने,
संग तेरे कर जाने को,
हवा हो जाने को।

ऐ बहार कभी तो इधर भी रुख कर,
देख कई गुलाब मैंने भी रखे थे कभी,
किताबों में मुरझाने को,
पत्ता-पत्ता हो जाने को।

ऐ चाँद थोड़ी चाँदनी की इनायत कर,
कई छाले मैंने भी सजा कर रखे हैं,
बेजान बदन तड़पाने को,
रूह का दर्द छिपाने को।

ऐ चिराग घर में कुछ तो रोशनी कर,
कई बार आशियाँ जलाया है मैंने,
उजाला पास बुलाने को,
अँधेरा दूर भगाने को।

ऐ शाम ना जा, ज़रा कुछ देर ठहर,
अक्सर रात को पाया है मैंने,
तन्हाई मेरी मिटाने को,
दोस्त कोई कहलाने को।
Shivpura 306104

1.5.16

उलझनों और कश्मकश में..
उम्मीद की ढाल लिए बैठा हूँ..
ए जिंदगी! तेरी हर चाल के लिए..
मैं दो चाल लिए बैठा हूँ |

लुत्फ़ उठा रहा हूँ मैं भी आँख-मिचोली का ...
मिलेगी कामयाबी, हौसला कमाल का लिए बैठा हूँ l

चल मान लिया... दो-चार दिन नहीं मेरे मुताबिक...
गिरेबान में अपने, ये सुनहरा साल लिए बैठा हूँ l

ये गहराइयां, ये लहरें, ये तूफां, तुम्हे मुबारक ...
मुझे क्या फ़िक्र... मैं कश्तियां और दोस्त... बेमिसाल लिए बैठा हूँ...।

Harish Arora

30.4.16

"मंजिल की ओर"
खुशी को मान खुशी और गम को गम करके ,
जरा सी बात को मत तूल दे अहम करके |
कद और बढता है सर को जरा खम करके ,
न हो तो देख कभी अपने मैं को हम करके |
वही गवाह था इन हादिसात का तन्हा ,
जुबान छीन ली उसकी भी मोहतरम करके |
हमी न पढ़ सके तहरीर बहते पानी पर ,
नहीं तो मौजें गई कितनी कुछ रकम करके |
उस एक सच से मुसीबत में जान थी कितनी ,
मजे में कट भी गई जिंदगी भरम करके |
अजब नहीं कि नजारों को कल तरस जाएं ,
न हो तो आप भी रख लें कोई सनम करके |
मिजाज अपना परिंदा सिफत रहा लेकिन ,
मिली हैं मंजिले हमको कदम-कदम करके |
www.facebook.com/harish.arora.92123

29.4.16

खुशियां कम और अरमान बहुत हैं..
जिसे भी देखिए यहां हैरान बहुत हैं...
करीब से देखा तो है रेत का घर..
दूर से मगर उनकी शान बहुत हैं...
कहते हैं सच का कोई सानी नहीं..
आज तो झूठ की आन-बान बहुत हैं...
मुश्किल से मिलता है शहर में आदमी..
यूं तो कहने को इन्सान बहुत हैं...
तुम शौक से चलो राहें-वफा लेकिन..
जरा संभल के चलना तूफान बहुत हैं...
वक्त पे न पहचाने कोई ये अलग बात है..
वैसे तो शहर में अपनी पहचान बहुत हैं...।
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अच्छे – बुरे की जिसे पहचान हो जाए 
कसम से वो आदमी इंसान हो जाए
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27.4.16

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खवाहिश  नहीं  मुझे  मशहुर  होने  की।
आप  मुझे  पहचानते  हो  बस  इतना  ही  काफी  है।
अच्छे  ने  अच्छा  और  बुरे  ने  बुरा  जाना  मुझे।
क्योंकि  जिसकी  जीतनी  जरुरत  थी  उसने  उतना  ही  पहचाना  मुझे।
ज़िन्दगी  का  फ़लसफ़ा  भी   कितना  अजीब  है, 
शामें  कटती  नहीं,  और  साल  गुज़रते  चले  जा  रहे  हैं....!!
एक  अजीब  सी  दौड़  है  ये  ज़िन्दगी, 
जीत  जाओ  तो  कई  अपने  पीछे  छूट  जाते  हैं,
और  हार  जाओ  तो  अपने  ही  पीछे  छोड़  जाते  हैं।
l-la४ish A४०४a(\/aishnav)
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