6.5.18

इंसान जाने कहां खो गये हैं....!
जाने क्यूँ,
अब शर्म से,
चेहरे गुलाब नहीं होते।
जाने क्यूँ,
अब मस्त मौला मिजाज नहीं होते।

पहले बता दिया करते थे, 
दिल की बातें।
जाने क्यूँ,
अब चेहरे,
खुली किताब नहीं होते।

सुना है,
बिन कहे,
दिल की बात,
समझ लेते थे।
गले लगते ही,
दोस्त हालात,
समझ लेते थे।

तब ना फेस बुक था,
ना स्मार्ट फ़ोन,
ना ट्विटर अकाउंट,
एक चिट्टी से ही,
दिलों के जज्बात,
समझ लेते थे।

सोचता हूँ,
हम कहाँ से कहाँ आगए,
व्यावहारिकता सोचते सोचते,
भावनाओं को खा गये।

अब भाई भाई से,
समस्या का समाधान,
कहाँ पूछता है,
अब बेटा बाप से,
उलझनों का निदान,
कहाँ पूछता है,
बेटी नहीं पूछती,
माँ से गृहस्थी के सलीके,
अब कौन गुरु के,
चरणों में बैठकर,
ज्ञान की परिभाषा सीखता है।

परियों की बातें,
अब किसे भाती है,
अपनों की याद,
अब किसे रुलाती है,
अब कौन,
गरीब को सखा बताता है,
अब कहाँ,
कृष्ण सुदामा को गले लगाता है

जिन्दगी में,
हम केवल व्यावहारिक हो गये हैं,
मशीन बन गए हैं हम सब,
इंसान जाने कहाँ खो गये हैं!

इंसान जाने कहां खो गये हैं....!

17.3.18

एक अच्छी कविता नही बन पाई!!


कई शब्द हैं और कुछ भावनाएं,
सोचता हूं एक कविता बन जाये!

कुछ कठिन शब्द हैं, कुछ सरल,
कुछ वाक्य गड्डमगड्ड हैं तो कुछ विरल!

अक्षर सारे आ गये, स्वर भी सब यहीं हैं,
मात्राएं सब ये रहीं, चिन्ह भी यहीं कहीं हैं!

कहीं अल्प विराम”  ( , ) मुंह छिपाये पडा है,
तो पास मे पूर्ण विराम”  ( । ) खडा है!

चन्द्र- बिन्दु”  ( ँ ) चिल्ला रहा- बताओ कहाँ लग जांउं?
माँ के साथ  लगाओगी? या  ’चाँदपर चढ जाउं?

उधर देखती हूं, “बिन्दी”  ( . ) इठला रही,
डैश” ( – ) भी कहीं लग जाने को बहला रही!

अवतरण चिन्ह” ( ” ” ) कहे मुझे कहाँ लगाओगे?
कोष्ठक”  (  ) भी पूछ रहा- मुझमे किसे बिठाओगे?

प्रश्न वाचक” ( ? ) चिन्ह कहे- बताओ क्या पूछना है?
या कि तुम्हे बस विस्मय” ( ! ) मे ही रहना है!

सब कुछ है यहां, पर संयोजन नही हो पाता,
वाक्य रचना ठीक है, पर भाव कहीं खो जाता!

शब्द अलट- पलट किये मात्राएं लगाईं!
फ़िर भी एक अच्छी कविता नही बन पाई!!


18.2.18

दर्द बयां तुझसे ऐ जिंदगी

किताबों से ज्यादा मुझे तू सिखाती है जिंदगी !
हर कदम पे कुछ नया तू बताती है जिंदगी !
उसको पाना मेरे नसीब में नहीं है तो भी बतला दे

यूं सुनहरी मंजिल दिखाकर मुझको

क्यूं इन कांटों भरी राहों में भटकाती है तू जिंदगी !
किताबों से ज्यादा मुझे तू सिखाती है जिंदगी !

हर कदम पे कुछ नया तू बताती है जिंदगी !
तू है ही ऐसी या मुझ पर बेरहम है

मुझे करना क्या है क्यूं नही मुझे बताती है तू जिंदगी

रात दिन एक कर दूंगा तेरे लिए

बस यूं खामोश रहकर, क्यूं मुझे सताती है तू जिंदगी !
किताबों से ज्यादा मुझे तू सिखाती है जिंदगी !
हर कदम पे कुछ नया तू बताती है जिंदगी !
मैं तेरा हूं तू मेरी है, तेरे बिना मैं कुछ नहीं
ना मेरे बिना तू कुछ है
अजीब कश्मकश है तेरी खामोशी की भी
तू संवरना चाहती है मेरे कर्मों पर
रुक ना जाए पंख कहीं आसमान में जाकर
शायद इसीलिए सौ बार गिराकर कदमों पे मुझको
फिर से चलना सिखाती है तू जिंदगी
किताबों से ज्यादा मुझे तू सिखाती है जिंदगी !
हर कदम पे कुछ नया तू बताती है जिंदगी !

14.2.18

सिर्फ तुम

यूं ही नहीं मिलता कोई अपना
इन गैरों की भीड़ में
बहुत मिन्नतों के बाद तू मिला है
इस दिल ए जागीर में
***
तेरी मुस्कुराहट से महक उठता है
हर कोना मेरे दिल का
तेरी ख़ामोशी से दहल उठता है
हर कतरा मेरे दिल का
***
तेरे साथ का असर
यूं हुआ है मुझमें
तू ही तू हर तरफ है
मैं नहीं अब खुद में
***
ये जिंदगी तेरे बिना अब
नामुमकिन सी लगती है
चाह है तेरी जिसके बगैर
ये सांसे अधूरी सी लगती है
***
एक सुबह फिर हो और
तुझे पाने की आस फिर जगी हो
काश ये इंतेजार खत्म हो और
मेरी हर तमन्ना पूरी हो |
               हरीश अरोड़ा 'वैष्णव' 
               Harish Arora (Vαishηαv)

29.9.17

"तेरा-मेरा रिश्ता"
धीरे-धीरे उतर रहा है
देखो दरिया बिखर रहा है |
जाने क्यों कहते हैं सारे
तुझ पर मेरा असर रहा है |

कई नजारे देखे- लेकिन
वही शरीके नजर रहा है |
जुल्फ झटक इतराने वाला
निथर रहा है, निखर रहा है |
जिसकी मेहंदी में लिक्खा हूं
वो ही मेरा हुनर रहा है |
यादों के बहते दरिया में
एक जजीरा उभर रहा है |
तेरा-मेरा रिश्ता जैसे
खुश्बू से तर सफर रहा है

22.6.17

कुछ जीत लिखूं या हार लिखूं,या दिल का सारा प्यार लिखूं.
कुछ अपनो के जज़्बात लिखूं या सपनो की सौगात लिखूं.

मैं खिलता सूरज आज लिखूं या चेहरा चाँद गुलाब लिखूं.
वो डूबते सूरज को देखूं या उगते फूल की साँस लिखूं.

वो पल मैं बीते साल लिखूं या सदियों लंबी रात लिखूं.
मैं तुमको अपने पास लिखूं या दूरी का अहसास लिखूं.

मैं अंधे के दिन मैं झांकू या आँखों की मैं रात लिखूं.
मीरा की पायल को सुनलू या गौतम की मुस्कान लिखूं.

बचपन मैं बच्चों से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूं.
सागर सा गेहरा हो जाउ या अम्बर का विस्तार लिखूं.

वो पहली पहली प्यास लिखूं या निश्चल पहला प्यार लिखूं.
सावन की बारिश मैं भीगूं या आँखों की मैं बरसात लिखूं.

गीता का अर्जुन हो जाउ या लंका रावण राम लिखूं.
मैं हिंदू मस्लिन हो जाउ या बेबस सा इंसान लिखूं.

मैं एक ही मज़हब को जी लू या मज़हब की आँखें चार लिखूं.
कुछ जीत लिखूं या हार लिखूं,या दिल का सारा प्यार लिखूं.

https://www.facebook.com/harish.arora.92123

10.4.17

एक बचपन का जमाना था,
जिस में खुशियों का खजाना था..

चाहत चाँद को पाने की थी,
पर दिल तितली का दिवाना था..

खबर ना थी कुछ सुबहा की,
ना शाम का ठिकाना था..

थक कर आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना था..

माँ की कहानी थी,
परीयों का फसाना था..

बारीश में कागज की नाव थी,
हर मौसम सुहाना था..

हर खेल में साथी थे,
हर रिश्ता निभाना था..

गम की जुबान ना होती थी,
ना जख्मों का पैमाना था..

रोने की वजह ना थी,
ना हँसने का बहाना था.. 

क्युँ हो गऐ हम इतने बडे,
इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था.
                               Hαяish αяσяα  (Vαishηαv)

7.1.17

उड़ चला था उन हवाओं के साथ,
खुद जिनका नही था ठिकाना
ले चलीं कुछ ऐसी जगह,
जहां न जमीं थी, ना आसमां
एक पल तो डर गया था सपनों से
यकीन तब हो गया
जब थाम कर हाथ मेरा कुछ ऐसा
कहा 'चलो थोड़ी जी लेते है ।'
चल पड़ा उन 
हवाओं के संग-संग
राह में थोड़ी आँख क्या लगी और वो
सिलसिला वही खत्म-सा हो गया
पकड़ तो नहीं सका आज भी, पर 
कर लेता हूँ महसूस कभी-कभी
उड़ चला था उन हवाओं के साथ,
खुद जिनका नही था ठिकाना
छोड़ चली कुछ ऐसी जगह, 
जहाँ न बातें थी न खामोशी
बस कुछ धुंधली-सी
यादें थी और मैं...
Harish Arora Vaishnav

25.12.16

harish.arora.92123
लफ्जों से अपने आज कल नश्तर बनाता हूं
मैं परबतों को काट कर कंकर बनाता हूं
       मायूसियों को छोंक कर सालन के साथ में
       कड़वाहटों को घोल कर शक्कर बनाता हूं
आपनी इंसानियत को जिन्दा रखने के वास्ते
मासूमियत हो के तीखे तेवर बनाता हूं
       जैसे कुम्हार चाक पर बरतन बनाता है
       वैसे ही जिन्दगी के अरमान बनाता हूं
मोती जैसे लफ्जों को चमका के ए 'हरी'
अल्फाज जोड़ जोड़ कर जेवर बनाता हूं ।