हिन्दी हमारी मातृ-भाषा है, मात्र-भाषा नहीं । हिन्दी बोलने में शर्म नहीं, गर्व महसूस करें ।। हिन्दी का विकास ही, हमारा विकास हैं ।।।
23.9.18
1.8.18
है सुना ये पूरी धरती तू चलाता है
मेरी भी सुन ले अरज मुझे घर बुलाता है
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
है सुना तू भटके मन को राह दिखाता है
मैं भी खोया हूं मुझे घर बुलाता है
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
मेरी भी सुन ले अरज मुझे घर बुलाता है
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
है सुना तू भटके मन को राह दिखाता है
मैं भी खोया हूं मुझे घर बुलाता है
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
मैं पूजा करूं या नमाजें पढूं
अरदासें करूं दिन रैन
ना तू मंदिर मिले, ना तू गिरजे मिले
तूझे ढूंढे थके मेरे नैन
तूझे ढूंढे थके मेरे नैन
तूझे ढूंढे थके मेरे नैन
जो भी रसमें हैं वो सारी मैं निभाता हूं
इन करोड़ों की तरह मैं सर झुकाता हूं
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
अरदासें करूं दिन रैन
ना तू मंदिर मिले, ना तू गिरजे मिले
तूझे ढूंढे थके मेरे नैन
तूझे ढूंढे थके मेरे नैन
तूझे ढूंढे थके मेरे नैन
जो भी रसमें हैं वो सारी मैं निभाता हूं
इन करोड़ों की तरह मैं सर झुकाता हूं
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
तेरे नाम कई, तेरे चेहरे कई
तूझे पाने की राहें कई
हर राह चला पर तू ना मिला
तू क्या चाहे मैं समझा नहीं
तू क्या चाहे मैं समझा नहीं
तू क्या चाहे मैं समझा नहीं
सोचे बिन समझे जतन करता ही जाता हूं
तेरी जिद सर आंखो पर रख के निभाता हूं
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
है सुना ये पूरी धरती तू चलाता है
मेरी भी सुन ले अरज मुझे घर बुलाता है
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
तूझे पाने की राहें कई
हर राह चला पर तू ना मिला
तू क्या चाहे मैं समझा नहीं
तू क्या चाहे मैं समझा नहीं
तू क्या चाहे मैं समझा नहीं
सोचे बिन समझे जतन करता ही जाता हूं
तेरी जिद सर आंखो पर रख के निभाता हूं
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
है सुना ये पूरी धरती तू चलाता है
मेरी भी सुन ले अरज मुझे घर बुलाता है
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
भगवान है कहां रे तू हे खुदा है कहां रे तू
6.5.18
इंसान जाने कहां खो गये हैं....!
जाने क्यूँ,
अब शर्म से,
चेहरे गुलाब नहीं होते।
जाने क्यूँ,
अब मस्त मौला मिजाज नहीं होते।
पहले बता दिया करते थे,
दिल की बातें।
जाने क्यूँ,
अब चेहरे,
खुली किताब नहीं होते।
सुना है,
बिन कहे,
दिल की बात,
समझ लेते थे।
गले लगते ही,
दोस्त हालात,
समझ लेते थे।
तब ना फेस बुक था,
ना स्मार्ट फ़ोन,
ना ट्विटर अकाउंट,
एक चिट्टी से ही,
दिलों के जज्बात,
समझ लेते थे।
सोचता हूँ,
हम कहाँ से कहाँ आगए,
व्यावहारिकता सोचते सोचते,
भावनाओं को खा गये।
अब भाई भाई से,
समस्या का समाधान,
कहाँ पूछता है,
अब बेटा बाप से,
उलझनों का निदान,
कहाँ पूछता है,
बेटी नहीं पूछती,
माँ से गृहस्थी के सलीके,
अब कौन गुरु के,
चरणों में बैठकर,
ज्ञान की परिभाषा सीखता है।
परियों की बातें,
अब किसे भाती है,
अपनों की याद,
अब किसे रुलाती है,
अब कौन,
गरीब को सखा बताता है,
अब कहाँ,
कृष्ण सुदामा को गले लगाता है
जिन्दगी में,
हम केवल व्यावहारिक हो गये हैं,
मशीन बन गए हैं हम सब,
इंसान जाने कहाँ खो गये हैं!
इंसान जाने कहां खो गये हैं....!
17.3.18
एक अच्छी कविता नही बन पाई!!
कई शब्द हैं और कुछ भावनाएं,
सोचता हूं एक कविता बन जाये!
कुछ कठिन शब्द हैं, कुछ सरल,
कुछ वाक्य गड्डमगड्ड हैं तो कुछ विरल!
अक्षर सारे आ गये, स्वर भी सब यहीं हैं,
मात्राएं सब ये रहीं, चिन्ह भी यहीं कहीं हैं!
कहीं “अल्प विराम” ( , ) मुंह छिपाये पडा है,
तो पास मे “पूर्ण विराम” ( । ) खडा है!
“चन्द्र- बिन्दु” ( ँ ) चिल्ला रहा- बताओ कहाँ लग जांउं?
’माँ ’ के साथ लगाओगी? या ’चाँद’ पर चढ जाउं?
उधर देखती हूं, “बिन्दी” ( . ) इठला रही,
“डैश” ( – ) भी कहीं लग जाने को बहला रही!
” अवतरण चिन्ह” ( ” ” ) कहे मुझे कहाँ लगाओगे?
“कोष्ठक” ( ) भी पूछ रहा- मुझमे किसे बिठाओगे?
“प्रश्न वाचक” ( ? ) चिन्ह कहे- बताओ क्या पूछना है?
या कि तुम्हे बस ” विस्मय” ( ! ) मे ही रहना है!
सब कुछ है यहां, पर संयोजन नही हो पाता,
वाक्य रचना ठीक है, पर भाव कहीं खो जाता!
शब्द अलट- पलट किये मात्राएं लगाईं!
फ़िर भी एक अच्छी कविता नही बन पाई!!
18.2.18
दर्द बयां तुझसे ऐ जिंदगी
किताबों से ज्यादा मुझे तू
सिखाती है जिंदगी !
हर कदम पे कुछ नया तू बताती
है जिंदगी !
उसको पाना मेरे नसीब में
नहीं है तो भी बतला दे
यूं सुनहरी मंजिल दिखाकर
मुझको
क्यूं इन कांटों भरी राहों
में भटकाती है तू जिंदगी !
किताबों से ज्यादा मुझे तू
सिखाती है जिंदगी !
हर कदम पे कुछ नया तू बताती
है जिंदगी !
तू है ही ऐसी या मुझ पर
बेरहम है
मुझे करना क्या है क्यूं
नही मुझे बताती है तू जिंदगी
रात दिन एक कर दूंगा तेरे
लिए
बस यूं खामोश रहकर, क्यूं मुझे सताती है तू जिंदगी !
किताबों से ज्यादा मुझे तू
सिखाती है जिंदगी !
हर कदम पे कुछ नया तू बताती
है जिंदगी !
मैं तेरा हूं तू मेरी है, तेरे बिना मैं कुछ नहीं
ना मेरे बिना तू कुछ है
अजीब कश्मकश है तेरी खामोशी
की भी
तू संवरना चाहती है मेरे
कर्मों पर
रुक ना जाए पंख कहीं आसमान
में जाकर
शायद इसीलिए सौ बार गिराकर
कदमों पे मुझको
फिर से चलना सिखाती है तू
जिंदगी
किताबों से ज्यादा मुझे तू
सिखाती है जिंदगी !
14.2.18
सिर्फ तुम
यूं ही नहीं मिलता कोई अपना
इन गैरों की भीड़ में
बहुत मिन्नतों के बाद तू मिला है
इस दिल ए जागीर में
***
तेरी मुस्कुराहट से महक उठता है
हर कोना मेरे दिल का
तेरी ख़ामोशी से दहल उठता है
हर कतरा मेरे दिल का
***
तेरे साथ का असर
यूं हुआ है मुझमें
तू ही तू हर तरफ है
मैं नहीं अब खुद में
***
ये जिंदगी तेरे बिना अब
नामुमकिन सी लगती है
चाह है तेरी जिसके बगैर
ये सांसे अधूरी सी लगती है
***
एक सुबह फिर हो और
तुझे पाने की आस फिर जगी हो
काश ये इंतेजार खत्म हो और
मेरी हर तमन्ना पूरी हो |
हरीश अरोड़ा 'वैष्णव'
इन गैरों की भीड़ में
बहुत मिन्नतों के बाद तू मिला है
इस दिल ए जागीर में
***
तेरी मुस्कुराहट से महक उठता है
हर कोना मेरे दिल का
तेरी ख़ामोशी से दहल उठता है
हर कतरा मेरे दिल का
***
तेरे साथ का असर
यूं हुआ है मुझमें
तू ही तू हर तरफ है
मैं नहीं अब खुद में
***
ये जिंदगी तेरे बिना अब
नामुमकिन सी लगती है
चाह है तेरी जिसके बगैर
ये सांसे अधूरी सी लगती है
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एक सुबह फिर हो और
तुझे पाने की आस फिर जगी हो
काश ये इंतेजार खत्म हो और
मेरी हर तमन्ना पूरी हो |
हरीश अरोड़ा 'वैष्णव'
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