29.9.17

"तेरा-मेरा रिश्ता"
धीरे-धीरे उतर रहा है
देखो दरिया बिखर रहा है |
जाने क्यों कहते हैं सारे
तुझ पर मेरा असर रहा है |

कई नजारे देखे- लेकिन
वही शरीके नजर रहा है |
जुल्फ झटक इतराने वाला
निथर रहा है, निखर रहा है |
जिसकी मेहंदी में लिक्खा हूं
वो ही मेरा हुनर रहा है |
यादों के बहते दरिया में
एक जजीरा उभर रहा है |
तेरा-मेरा रिश्ता जैसे
खुश्बू से तर सफर रहा है

22.6.17

कुछ जीत लिखूं या हार लिखूं,या दिल का सारा प्यार लिखूं.
कुछ अपनो के जज़्बात लिखूं या सपनो की सौगात लिखूं.

मैं खिलता सूरज आज लिखूं या चेहरा चाँद गुलाब लिखूं.
वो डूबते सूरज को देखूं या उगते फूल की साँस लिखूं.

वो पल मैं बीते साल लिखूं या सदियों लंबी रात लिखूं.
मैं तुमको अपने पास लिखूं या दूरी का अहसास लिखूं.

मैं अंधे के दिन मैं झांकू या आँखों की मैं रात लिखूं.
मीरा की पायल को सुनलू या गौतम की मुस्कान लिखूं.

बचपन मैं बच्चों से खेलूँ या जीवन की ढलती शाम लिखूं.
सागर सा गेहरा हो जाउ या अम्बर का विस्तार लिखूं.

वो पहली पहली प्यास लिखूं या निश्चल पहला प्यार लिखूं.
सावन की बारिश मैं भीगूं या आँखों की मैं बरसात लिखूं.

गीता का अर्जुन हो जाउ या लंका रावण राम लिखूं.
मैं हिंदू मस्लिन हो जाउ या बेबस सा इंसान लिखूं.

मैं एक ही मज़हब को जी लू या मज़हब की आँखें चार लिखूं.
कुछ जीत लिखूं या हार लिखूं,या दिल का सारा प्यार लिखूं.

https://www.facebook.com/harish.arora.92123

10.4.17

एक बचपन का जमाना था,
जिस में खुशियों का खजाना था..

चाहत चाँद को पाने की थी,
पर दिल तितली का दिवाना था..

खबर ना थी कुछ सुबहा की,
ना शाम का ठिकाना था..

थक कर आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना था..

माँ की कहानी थी,
परीयों का फसाना था..

बारीश में कागज की नाव थी,
हर मौसम सुहाना था..

हर खेल में साथी थे,
हर रिश्ता निभाना था..

गम की जुबान ना होती थी,
ना जख्मों का पैमाना था..

रोने की वजह ना थी,
ना हँसने का बहाना था.. 

क्युँ हो गऐ हम इतने बडे,
इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था.
                               Hαяish αяσяα  (Vαishηαv)

7.1.17

उड़ चला था उन हवाओं के साथ,
खुद जिनका नही था ठिकाना
ले चलीं कुछ ऐसी जगह,
जहां न जमीं थी, ना आसमां
एक पल तो डर गया था सपनों से
यकीन तब हो गया
जब थाम कर हाथ मेरा कुछ ऐसा
कहा 'चलो थोड़ी जी लेते है ।'
चल पड़ा उन 
हवाओं के संग-संग
राह में थोड़ी आँख क्या लगी और वो
सिलसिला वही खत्म-सा हो गया
पकड़ तो नहीं सका आज भी, पर 
कर लेता हूँ महसूस कभी-कभी
उड़ चला था उन हवाओं के साथ,
खुद जिनका नही था ठिकाना
छोड़ चली कुछ ऐसी जगह, 
जहाँ न बातें थी न खामोशी
बस कुछ धुंधली-सी
यादें थी और मैं...
Harish Arora Vaishnav